सदगुरु ने कहां तक की है पढ़ाई? कब शुरू हुआ आध्यात्मिक सफर? जानें पूरी जीवन यात्रा


सद्गुरू - India TV Hindi

Image Source : ISHA FOUNDATION @ISHA.SADHGURU.ORG
सद्गुरू

जग्गी वासुदेव, जिन्हें दुनिया सद्गुरु(Sadhguru) के नाम से जानती है। सद्गुरु ईशा फाउंडेशन के संस्थापक और प्रमुख हैं। सद्गुरु एक आधुनिक गुरु हैं। सदगुरु का जन्म 3 सितंबर, 1957 को कर्नाटक के मैसूर शहर में हुआ। दुनिया में शायद ही कोई कोना ऐसा होगा जहां पर सद्गुरू की प्रसद्धि न हो। लेकिन क्या आप सभी को उनकी एजुकेशनल क्वालिफिकेशन के बारे में पता है, क्या आप जानते हैं कि सद्गुरु कितने पढ़े लिखे हैं। अगर आप इस बात की जानकारी से अनभिज्ञ हैं तो कोई बात नहीं आज हम आपको इस खबर के जरिए सद्गुरू की पढ़ाई-लिखाई के बारे में बताएंगे। साथ ही यह भी बताएंगे कि  कि सद्गगूरू का आध्यात्मिक सफर कब शुरू हुआ। चो चलिए इन सवालों के जवाब को जानते हैं। 

कितने पढ़े लिखे हैं सद्गुरू?

सद्गुरू ने स्कूलिंग मैसूर से ही हुई। जिसके बाद उन्होंनें मैसूर विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, जहां उन्होंने अंग्रेजी साहित्य(English Literature) का अध्ययन किया। 

मैसूर विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने अपना एक बिजनेस शुरू किया। उन्होंने मैसूर में ही अपना एक पोल्ट्री फार्म खोला। इसके बाद उन्होंने कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में अपना हाथ आजमाया। उन्होंने अपने एक दोस्त के साथ पार्टरनशिप में एक कंपनी शुरू की। इसके उनको कुछ लगातार आध्यात्मिक अनुभव हुए, जिसके बाद उन्होंने अपना व्यवसाय बंद कर दिया और यात्रा करना, योग सिखाना शुरू कर दिया। 

कब शुरू हुआ आध्यात्मिक सफर?

सद्गुरु ने अपनी किताब इनर इंजीनियरिंग में बताया है, “एक दोपहर मेरे पास करने को कुछ नहीं था और हाल में ही मेरा दिल भी टूटा था, इसलिए मैं चामुंडी पहाड़ी पर चला गया। एक स्थान पर मैंने अपनी मोटर साइकिल खड़ी की और करीब दो-तिहाई पहाड़ी चढ़ने के बाद एक चट्टान पर बैठ गया। वह मेरी ‘ध्यान-शिला’ थी। उस क्षण तक मेरा जो अनुभव था, उसके अनुसार मेरा शरीर और मन दोनों “मैं” थे और शेष विश्व ‘बाहरी’। लेकिन अचानक मुझे भान नहीं रहा था कि मैं क्या था और क्या नहीं। मेरी आंखें अभी भी खुली थीं। लेकिन मैं जिस हवा में सांस ले रहा था, जिस पत्थर पर मैं बैठा था, सब मैं वन गया था। वहां जो कुछ था, सब मैं था। मैं सचेत होते हुए भी चेतन नहीं था। चीज़ों में फर्क कर पाने की इंद्रियों की प्रकृति खो चुकी थी।”

” इस बारे में जितना ज़्यादा कहूंगा, उतना ही ज़्यादा पागलपन लगेगा, क्योंकि जो हो रहा था, वह अवर्णनीय था। मेरा ‘मैं’ हर जगह व्याप्त था। हर चीज़ अपनी तय सीमाओं से परे विस्तार कर रही थी; हर चीज़ विस्तृत होकर दूसरी हर चीज़ में समा रही थी। यह संपूर्णता की आयाम रहित एकता थी। बस वही पल अब मेरा जीवन है, जो बहुत सुंदरता से बरकरार है। जब मुझे होश आया, तो ऐसा लगा कि महज दस मिनट गुजरे हैं। लेकिन मेरी घड़ी की सुइयां बता रही थीं कि शाम के साढ़े सात बज चुके थे यानी साढ़े चार घंटे बीत चुके थे। मेरी आंखें खुली थीं, सूरज ढल चुका था और अंधेरा हो गया था। मैं पूरी तरह से सतर्क था, लेकिन उस पल तक, जिसे मैं मेरा ‘मैं’ मानता था, वह पूरी तरह से गायब हो चुका था। मैं रोने-धोने वालों में से नहीं हूं। मगर फिर भी, चामुंडी पहाड़ी की उस चट्टान पर पच्चीस साल की उम्र में, मैं इतना उन्मत्त था कि मेरे आंसू बह रहे थे और मेरी कमीज गीली हो चुकी थी।” 

Latest Education News





Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *