ट्रेन के ड्राइवर को क्यों दिया जाता है यह लोहे का छल्ला? जानें क्या है इसका काम


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टोकन एक्सचेंज में लोकोपायलट को लोहे की रिंग दी जाती है।

अधिक दूरी की यात्रा के लिए ट्रेन सबसे सरल और सस्ता साधन है। भारत में हर दिन करोड़ों लोग ट्रेन से सफर करते हैं। भारतीय ट्रेन अब पहले से काफी ज्यादा एडवांस बन चुकी है। इंडियन रेलवे में अब वंदे भारत जैसी हाई स्पीड प्रीमियम ट्रेन भी शामिल हो चुकी हैं। रेलवे लगातार अपनी ट्रेन्स को अपग्रेड कर रहा है। लेकिन, देश में अभी भी कई सारी ऐसी जगहें पर जहां पर आज भी ट्रेनों के लिए अंग्रेजों के जमाने के तरीके अपनाए जा रहे हैं। आज भी भारत में कई जगहों पर ट्रेन्स को चलाने के लिए पुराने टोकन सिस्टम का इस्तेमाल किया जा रहा है। 

भारतीय रेलवे सिस्टम में टोकन एक्सचेंज की शुरुआत इसलिए की गई थी ताकि ट्रेनों का आवागमन सुरक्षित हो सके। साफ शब्दों में समझाएं तो यह उस जमानें का तरीका है जब सभी जगहों पर सिग्नल की सुविधा मौजूद नहीं थी। ट्रेन अपने अपकमिंग स्टेशन पर सही से पहुंच सके इसके लिए टोकन एक्सचेंज सुविधा को लागू किया गया था। देश में आज भी कई जगहों पर अभी भी यह सिस्टम चालू है। 

ट्रेन की सेफ्टी के लिए जरूरी है यह टेक्नोलॉजी

आपको बता दें कि टोकन एक्सचेंज सिस्टम में ट्रेन के ड्राइवर को एक लोहे की रिंग दी जाती है। ट्रेन का ड्राइवर जब तक इस लोहे की रिंग को दूसरे स्टेशन पर नहीं पहुंचा देता तब तक उस ट्रैक पर दूसरी ट्रेन को चालू नहीं किया जाता। आइए आपको इस टोकन एक्सचेंज सिस्टम के बारे में डिटेल से बताते हैं। 

भारतीय रेलवे की जब शुरुआत हुई थी तो काफी समय तक ट्रैक काफी छोट हुआ करते थे। देश में कई जगहें तो ऐसी थीं जहां पर एक ही ट्रैक पर आने और जाने वाली ट्रेन चला करती हैं। ऐसे में दोनों ट्रेन आपस में न भिड़ें इसके लिए टोकन एक्सचेंज को शुरू किया गया था। इस सिस्टम में लोहे के एक बड़े छल्ले को टोकन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जब ट्रेन स्टेशन पर पहुंचती है तो इस लोहे के छल्ले को लोकोपायलट यानी ट्रेन के ड्राइवर को दे दिया जाता है। 

लोहे की रिंग को पहुंचाना होता है अगले स्टेशन

ड्राइवर को लोहे का छल्ला देने का मतलब यह था कि वह ट्रैक पूरी तरह से फ्री है उसमें कोई और दूसरी गाड़ी नहीं आ सकती। उस ट्रैक में जुड़े दूसरे स्टेशन पर जैसी ही ट्रेन पहुंचती है तो लोकोपायलट उस लोहे के छल्ले को स्टेशन मास्टर को दे देता है। जब तक वह टोकन स्टेशन में एक्सचेंज नहीं होता तब तक स्टेशन मास्टर उस ट्रैक पर दूसरी गाड़ी को नहीं चला सकता। 

आपकी जानकारी के लिए बता दें टोकन एक्सचेंज में इस्तेमाल किए जाने वाले लोहे के छल्ले में लोहे की एक बॉल होती है। इस बॉल को टेक्निकल भाषा में टेबलेट कहते हैं। जैसे ही स्टेशन मास्टर को ड्राइवर से टोकन मिलता है वह उसे स्टेशन पर लगे नेल बॉल मशीन पर फिट करता है। इससे अगले स्टेशन तक का रूट क्लीयर माना जाता है। इस टोकन स्टेशन की सबसे खास बात यह थी कि अगर किसी वजह से ट्रेन स्टेशन पर नहीं पहुंचती तो इससे पिछले स्टेशन पर लगी नेल बॉल मशीन अनलॉक नहीं होगी और उस स्टेशन से कोई भी ट्रेन उस ट्रैक पर नहीं आ पाएगी। 

टोकन एक्सचेंज सिस्टम की खास बातें

  1. रेलवे के टोकन एक्सचेंज सिस्टम में, लोहे के छल्ले में एक बॉल होती है जिसे टेबलेट कहा जाता है।
  2. स्टेशन मास्टर ट्रेन के ड्राइवर से टोकन लेकर उस बॉल को स्टेशन पर लगे नेल बॉल मशीन में फिट करता है।
  3. बॉल फिट होते ही अगले स्टेशन तक का रूट साफ हो जाता है।  
  4. अगर स्टेशन से गई कोई गाड़ी अगले स्टेशन पर नहीं पहुंचती तो पिछले स्टेशन पर लगी नेल बॉल मशीन लॉक ही रहेगी। 

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