क्या इंसानी डीएनए को बनाया जा सकता है? ब्रिटेन में वैज्ञानिकों ने शुरू किया अनोखा प्रयोग


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DNA से जुड़ा यह प्रोजेक्ट मेडिकल साइंस में क्रांति ला सकता है।

लंदन: ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा प्रयोग शुरू किया है, जो न सिर्फ इंसानी बीमारियों के इलाज को बदल सकता है, बल्कि यह भी तय कर सकता है कि हम जिंदगी को कैसे समझते हैं। दुनिया की सबसे बड़ी मेडिकल चैरिटी, वेलकम ट्रस्ट ने इस प्रोजेक्ट के लिए 10 मिलियन पाउंड (लगभग 106 करोड़ रुपये) की शुरुआती फंडिंग दी है। इस प्रोजेक्ट को सिंथेटिक ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट नाम दिया गया है, जिसका मकसद इंसानी DNA को शुरू से बनाना है। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह दुनिया में अपनी तरह का पहला प्रयोग है।

क्या है यह प्रोजेक्ट?

25 साल पहले ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट ने इंसानी DNA को एक बारकोड की तरह पढ़ने की राह खोली थी। अब यह नया प्रोजेक्ट उससे एक कदम आगे बढ़कर DNA के हिस्सों को, और शायद भविष्य में पूरे क्रोमोसोम को, शुरू से बनाने की कोशिश कर रहा है। DNA हमारे शरीर की हर कोशिका में होता है और इसमें 4 बुनियादी तत्व A, G, C, और T बार-बार अलग-अलग संयोजनों में मौजूद होते हैं। यही तत्व हमें शारीरिक रूप से बनाते हैं। इस प्रोजेक्ट का पहला लक्ष्य है बड़े-बड़े DNA ब्लॉक्स बनाना, ताकि वैज्ञानिक यह समझ सकें कि हमारे जीन शरीर को कैसे नियंत्रित करते हैं और बीमारियों का कारण क्या है।

कैंब्रिज के MRC लैबोरेटरी ऑफ मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर जूलियन सेल ने BBC न्यूज को बताया, ‘हमारी मंजिल बहुत ऊंची है। हम ऐसी थेरेपीज बनाना चाहते हैं, जो लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाए, खासकर बुढ़ापे में। हम बीमारी से लड़ने वाली कोशिकाएं बनाना चाहते हैं, जो लीवर, दिल या इम्यून सिस्टम जैसे क्षतिग्रस्त अंगों को दोबारा ठीक कर सकें।’

यह इतना खास क्यों है?

वेलकम सेंगर इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रोफेसर मैथ्यू हर्ल्स का कहना है कि डीएनए को शुरू से बनाना हमें यह समझने में मदद करेगा कि यह वास्तव में कैसे काम करता है। उन्होंने कहा, ‘कई बीमारियां तब होती हैं, जब जीन में कुछ गड़बड़ हो जाती है। DNA को बनाकर हम नई थ्योरी टेस्ट कर सकते हैं और नए इलाज ढूंढ सकते हैं।’ इस प्रोजेक्ट में काम टेस्ट ट्यूब और डिश में होगा, यानी इसका मकसद कृत्रिम जिंदगी बनाना नहीं है। वेलकम ट्रस्ट का कहना है कि यह प्रोजेक्ट लाइलाज बीमारियों के लिए नए इलाज को तेजी से ला सकता है। उदाहरण के लिए, यह ऐसी कोशिकाएं बना सकता है, जो बीमारी से लड़ सकें और क्षतिग्रस्त अंगों को ठीक कर सकें। यह खोज कैंसर, डायबिटीज और हृदय रोग जैसी बीमारियों के इलाज में क्रांति ला सकती है।

नैतिकता पर उठ रहे सवाल

लेकिन इस प्रोजेक्ट ने कई नैतिक सवाल भी खड़े किए हैं। कुछ आलोचकों का कहना है कि यह तकनीक गलत हाथों में पड़ने पर खतरनाक हो सकती है। बियॉन्ड जीएम नामक संगठन के निदेशक डॉ. पैट थॉमस ने चेतावनी दी, ‘हम सोचते हैं कि सारे वैज्ञानिक अच्छाई के लिए काम करते हैं, लेकिन इस साइंस का इस्तेमाल बुराई या जंग के लिए भी हो सकता है।’ एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के जेनेटिक्स विशेषज्ञ प्रोफेसर बिल अर्नशॉ ने कहा, ‘अब यह जिन्न बोतल से बाहर आ चुका है। हम भले ही अब नियम बनाएं, लेकिन अगर कोई संगठन सही मशीनरी के साथ कुछ भी बनाने का फैसला करता है, तो उसे रोकना मुश्किल होगा।’ उनकी यह बात ‘डिजाइनर बेबीज़’ या कृत्रिम रूप से बेहतर इंसान बनाने की आशंका को और मजबूत करती है।

नैतिकता को बनाए रखने की कोशिश

इन चिंताओं को देखते हुए, प्रोजेक्ट के साथ एक खास सामाजिक विज्ञान कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है, जिसकी अगुवाई केंट यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर जॉय झांग कर रही हैं। उनका कहना है, ‘हम यह समझना चाहते हैं कि लोग इस तकनीक को कैसे देखते हैं, यह उनके लिए कैसे फायदेमंद हो सकती है, और उनकी क्या चिंताएं या उम्मीदें हैं।’ इस कार्यक्रम में समाजशास्त्रियों, नैतिकता विशेषज्ञों और आम लोगों की राय ली जाएगी। वेलकम ट्रस्ट के रिसर्च प्रोग्राम्स के प्रमुख डॉ. टॉम कॉलिन्स ने BBC से कहा, ‘हमने खुद से सवाल किया कि अगर हम यह नहीं करते तो क्या होगा? यह तकनीक तो किसी न किसी दिन बन ही जाएगी। इसलिए हम इसे अभी जिम्मेदारी के साथ कर रहे हैं और नैतिक सवालों का सामना शुरू से कर रहे हैं।’

प्रोजेक्ट सफल होने पर क्या बदलेगा?

यह प्रोजेक्ट न सिर्फ मेडिकल साइंस में क्रांति ला सकता है, बल्कि यह भी तय करेगा कि हम भविष्य में इंसानी जिंदगी को कैसे देखते हैं। लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि क्या हम ऐसी तकनीक के लिए तैयार हैं? क्या समाज और सरकारें इसे नियंत्रित कर पाएंगी? फिलहाल, यह प्रयोग अपनी शुरुआती अवस्था में है, और वैज्ञानिकों का कहना है कि इसका मकसद इंसानी जिंदगी को बेहतर बनाना है। लेकिन जैसा कि प्रोफेसर अर्नशॉ ने कहा, ‘जिन्न अब बोतल से बाहर है।’ अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इस तकनीक का इस्तेमाल कैसे करते हैं।

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