
अमित शाह और बी सुदर्शन रेड्डी।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बीते शुक्रवार को कांग्रेस के नेतृत्व वाले INDIA गठबंधन के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी पर निशाना साधा था। अमित शाह ने बी सुदर्शन पर नक्सलवाद का समर्थन करने का आरोप लगाया था और कहा कि अगर उन्होंने सलवा जुडूम पर फैसला नहीं सुनाया होता, तो देश में माओवाद 2020 से पहले ही समाप्त हो गया होता। इसके बाद 18 पूर्व न्यायाधीशों ने बी सुदर्शन रेड्डी का बचाव किया था। अब 56 पूर्व न्यायाधीशों ने इन 18 पूर्व न्यायाधीशों के बयान की आलोचना की है और कहा है कि इनका बयान राजनीतिक सुविधा के लिए न्यायिक स्वतंत्रता की आड़ का दुरुपयोग करने के समान है।
पत्र में क्या लिखा गया?
56 पूर्व जजों की ओर से लिखे गए इस पत्र में कहा गया है- “हम, इस देश के पूर्व न्यायाधीशों के रूप में, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और कार्यकर्ताओं के एक समूह द्वारा हाल ही में जारी किए गए बयान से अपनी असहमति दर्ज कराने के लिए बाध्य महसूस करते हैं। यह एक पैटर्न बन गया है, जहां हर बड़े राजनीतिक घटनाक्रम पर एक ही वर्ग से बयान आते हैं। ये बयान न्यायिक स्वतंत्रता की भाषा में अपनी राजनीतिक पक्षपातपूर्णता को छिपाने के लिए दृढ़ हैं। यह प्रथा उस संस्था के लिए बहुत बड़ा नुकसान है जिसमें हमने कभी सेवा की थी, क्योंकि यह न्यायाधीशों को राजनीतिक कर्ता के रूप में प्रस्तुत करती है। यह उस समृद्धि, गरिमा और तटस्थता को नष्ट कर देती है जिसकी एक न्यायिक अधिकारी के पद को आवश्यकता होती है।”
बी सुदर्शन पर क्या बोले पूर्व जज?
56 पूर्व जजों ने बी सुदर्शन के उपराष्ट्रपति चुनाव लड़ने पर कहा- “एक रिटायर्ड जज ने अपनी इच्छा से भारत के उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने का फैसला किया है। ऐसा करके, उन्होंने विपक्ष द्वारा समर्थित उम्मीदवार के रूप में राजनीतिक एंट्री की है। ऐसा करने के बाद, उन्हें राजनीतिक बहस के क्षेत्र में किसी भी अन्य उम्मीदवार की तरह अपनी उम्मीदवारी का बचाव करना होगा। इसके विपरीत सुझाव देना लोकतांत्रिक संवाद को दबाना और न्यायिक स्वतंत्रता की आड़ का राजनीतिक सुविधा के लिए दुरुपयोग करना है।”
पत्र में आगे कहा गया- “किसी राजनीतिक उम्मीदवार की आलोचना से न्यायिक स्वतंत्रता को कोई खतरा नहीं है। न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को वास्तव में तब नुकसान पहुंचता है जब पूर्व न्यायाधीश बार-बार पक्षपातपूर्ण बयान देते हैं, जिससे यह आभास होता है कि संस्था स्वयं राजनीतिक लड़ाई से जुड़ी हुई है। कुछ लोगों की गलती के कारण, न्यायाधीशों का बड़ा समूह पक्षपातपूर्ण गुट के रूप में चित्रित हो जाता है। यह न तो उचित है और न ही भारत की न्यायपालिका या लोकतंत्र के लिए स्वस्थ है। इसलिए हम अपने भाई न्यायाधीशों से अपील करते हैं कि वे राजनीति से प्रेरित बयानों में अपना नाम न डालें। जिन लोगों ने राजनीति का रास्ता चुना है, उन्हें इस क्षेत्र में अपना बचाव करने दें। न्यायपालिका को ऐसी उलझनों से दूर और अलग रखा जाना चाहिए।”
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