जब एक महिला ने हिला दी थी शरिया कानून की नींव, भड़क गया था मुस्लिम समाज, अब बड़े पर्दे पर आएगी ‘हक’ की लड़ाई


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यामी गौतम और इमरान हाशमी।

इंदौर की एक आम सी महिला ने 1978 में ऐसा कदम उठाया, जिसने पूरे देश में महिलाओं के अधिकारों की दिशा बदल दी। उनका नाम था शाह बानो बेगम। उस दौर में जब औरतों की आवाज अक्सर दबा दी जाती थी, शाह बानो ने अपने हक के लिए खड़े होकर समाज को झकझोर दिया। उनका संघर्ष केवल एक पत्नी का नहीं था, बल्कि उन लाखों महिलाओं की कहानी थी जो चुपचाप अन्याय सहती रहीं। शाह बानो ने न सिर्फ अपनी आवाज बुलंद की बल्कि अपनी बात का लोहा भी मनवाया। अब शाह बानो की दर्दनाक कहानी बड़े पर्दे पर आने वाली है। इमरान हाशमी और यामी गौतम स्टारर फिल्म 7 नवंबर को रिलीज होगी। फिल्म में यामी शाह बानो और इमरान हाशमी उनके पति के रोल में नजर आएंगे।

पति की दूसरी शादी और टूटी दुनिया

शाह बानो की शादी एडवोकेट मोहम्मद अहमद खान से 1932 में हुई थी। दोनों के पांच बच्चे थे, तीन बेटे और दो बेटियां। शुरूआती सालों में सब कुछ ठीक चला, लेकिन चौदह साल बाद खान ने एक युवा महिला से दूसरी शादी कर ली। इसके बाद उन्होंने शाह बानो और अपने बच्चों से सारे रिश्ते तोड़ दिए और उन्हें घर से निकाल दिया। उम्र के आखिरी पड़ाव पर शाह बानो बेघर, बेसहारा और अपमानित हो गईं, लेकिन शाह बानो ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने मशहूर वकील पति से भरण-पोषण की मांग की, वही इंसान जिसने कभी उनके लिए आसमान के तारे तोड़ लाने का वादा किया था।

अदालत में उठी एक नई आवाज

शाह बानो ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 की धारा 125 के तहत याचिका दायर की। इस कानून के अनुसार अगर कोई पत्नी आर्थिक रूप से खुद का भरण-पोषण नहीं कर सकती तो पति को उसकी जिम्मेदारी उठानी होती है, चाहे शादी टूटी हो या नहीं। मोहम्मद अहमद खान ने 200 रुपये महीना देने का वादा किया था, लेकिन जल्द ही उन्होंने वह भी बंद कर दिया। 1978 में शुरू हुआ यह मामला धीरे-धीरे पूरे देश का विषय बन गया। सवाल सिर्फ एक बुजुर्ग महिला के गुजारे का नहीं था, बल्कि यह तय करने का था कि क्या समान नागरिक अधिकार धर्म से ऊपर हैं।

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

साल 1985 में भारत के मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ ने एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसने इतिहास बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शाहबानो को भरण-पोषण का अधिकार है, और यह अधिकार किसी धर्म से नहीं, बल्कि संविधान से आता है। यह फैसला महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक बड़ा कदम माना गया, लेकिन इसके साथ ही, देशभर में राजनीतिक और धार्मिक तूफान खड़ा हो गया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कई धार्मिक संगठनों ने इस निर्णय को इस्लामिक शरीयत में हस्तक्षेप बताया। उनका कहना था कि इस्लाम में तलाक के बाद पति केवल इद्दत अवधि (लगभग तीन महीने) तक ही पत्नी की देखभाल का जिम्मेदार होता है।

Shah bano

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शाह बानो।

सरकार का विवादास्पद कदम

भारी दबाव में, तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया। इस नए कानून ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बना दिया। अब मुस्लिम महिलाएं तलाक के बाद सामान्य नागरिक कानूनों के तहत भरण-पोषण नहीं मांग सकती थीं। पति को केवल इद्दत अवधि तक आर्थिक सहायता देने की बाध्यता रही, जिसके बाद महिला को अपने रिश्तेदारों या समाज पर निर्भर रहना पड़ता था। राजनीतिक विवादों के बीच शाह बानो ने आखिरकार अपना मुकदमा वापस ले लिया। उन्होंने अपनी बाकी जिंदगी चुपचाप गुजारी और 1992 में ब्रेन हैमरेज के कारण उनका निधन हो गया, लेकिन उनका नाम भारत के न्यायिक इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा, एक ऐसी महिला के रूप में जिसने अपनी आवाज से सदी की बहस को जन्म दिया।

अब बड़े पर्दे पर उनकी कहानी

शाह बानो की इस साहसी लड़ाई को अब फिल्म के रूप में दर्शाया जाएगा। ‘हक’, जिसमें यामी गौतम धर और इमरान हाशमी मुख्य भूमिकाओं में हैं, जंगली पिक्चर्स द्वारा बनाई गई है और 7 नवंबर को सिनेमाघरों में रिलीज होगी। हालांकि फिल्म को लेकर विवाद भी जारी है, शाह बानो के परिवार ने इस पर आपत्ति जताई है और रोक लगाने की मांग की है, लेकिन विवादों से परे शाह बानो की कहानी हमेशा याद दिलाएगी कि एक महिला की दृढ़ता कानून, समाज और परंपरा तीनों को बदलने की ताकत रखती है।

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