30 साल के हर्षित बने जैन मुनि, करोड़ों का बिजनेस-प्रॉपर्टी छोड़ अपनाया संयम; बोले- कोरोना काल में देखा, कोई किसी का नहीं


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हर्षित जैन ने 30 वर्ष की उम्र में मोह–माया त्यागकर अपनाया संयम।

यूपी के बागपत से आज एक ऐसी खबर सामने आई है, जो जीवन के असली अर्थ और वैराग्य की अनोखी मिसाल पेश करती है। करोड़ों का कपड़ों का कारोबार, आधुनिक जीवन की सारी सुख सुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य- यह सब पीछे छोड़कर बागपत के 30 वर्षीय हर्षित जैन ने संयम और साधना का मार्ग अपना लिया है। कोरोना काल में संसार की नश्वरता को नज़दीक से महसूस करने के बाद हर्षित ने दीक्षा लेकर मुनि बनने का निर्णय लिया। बागपत के बामनौली जैन मंदिर में हुए भव्य तिलक समारोह में हर्षित के साथ दो अन्य युवाओं ने भी मोह-माया त्यागकर अध्यात्म की राह पकड़ ली।

आइए आपको बताते हैं कैसे एक सफल व्यापारी ने वैराग्य को जीवन का नया आधार बना लिया-

हर्षित जैन,संभव जैन और श्रेयश जैन ने ली दीक्षा

बागपत जिले के दोघट कस्बे के रहने वाले हर्षित जैन ने संयम और आध्यात्मिक जीवन का मार्ग अपना लिया है। हर्षित के साथ ही उत्तराखंड के छात्र संभव जैन और हरियाणा के श्रेयस जैन ने भी दीक्षा लेकर सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया है। तीनों का तिलक समारोह बामनौली गांव स्थित जैन मंदिर में भव्य रूप से आयोजित किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में श्रावक–श्राविकाएं और जैन समाज के गणमान्य लोग सम्मिलित हुए।

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संभव जैन, श्रेयस जैन और हर्षित जैन ने दीक्षा लेकर सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया है।

पिता विद्युत उपकरणों के बड़े व्यापारी, बड़ा भाई डॉक्टर

हर्षित जैन अपने परिवार में छोटे बेटे हैं। उनके पिता सुरेश जैन दिल्ली में विद्युत उपकरणों के बड़े व्यापारी हैं, जबकि माता सविता जैन गृहणी हैं। बड़े भाई संयम जैन दिल्ली के जैन अस्पताल में डॉक्टर के पद पर कार्यरत हैं और भाभी गृहणी हैं। हर्षित ने प्रारंभिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा बड़ौत कस्बे से प्राप्त की तथा इसके बाद गाजियाबाद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई के बाद उन्होंने दिल्ली के चांदनी चौक में कपड़ों का सफल व्यापार भी शुरू किया और कम उम्र में ही आर्थिक रूप से सशक्त बन गए थे। लेकिन सफलता के शिखर पर पहुंचने के बावजूद भी उनके मन में अध्यात्म की ओर झुकाव बना रहा। 

‘कोरोना काल में देख लिया, कोई किसी का नहीं’

कोरोना महामारी के दौरान जब लोगों में दूरी बढ़ी और परिवार के सदस्य भी एक-दूसरे के पास आने से कतराने लगे, तभी हर्षित के मन में संसार की नश्वरता का एहसास गहरा हुआ। हर्षित ने बताया, ”कोविड काल में मैंने इंसानों को अपनों से दूर होते देखा। कोई किसी को हाथ लगाने से भी डर रहा था। भाई-भाई के करीब नहीं जा रहा था। यह देखकर मेरी आत्मा को चोट पहुंची। उस दिन एहसास हुआ कि कोई किसी का नहीं।”

इसी काल में जीवन और मृत्यु के संघर्ष को देखकर हर्षित के भीतर वैराग्य जागा और उन्होंने प्रभु की शरण में जाने का निर्णय पक्का कर लिया। गुरुदेव से प्रेरणा लेकर उन्होंने अपनी समस्त मोह-माया त्यागकर संयम की राह पर आगे बढ़ने का संकल्प लिया।

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जैन दीक्षार्थी

अकेले आए हैं और अकेले ही जाएंगे- हर्षित

हर्षित जैन ने बताया कि उनके परिवार पर शुरू से ही जैन संतों का आशीर्वाद रहा है और वे बचपन से ही धार्मिक परिवेश में जुड़े रहे। उन्होंने कहा कि उन्होंने स्कूल और कॉलेज की शिक्षा पूरी की, व्यापार भी संभाला लेकिन कोविड काल ने उनके मन पर गहरी चोट की। कोरोना में देखा कि अपने भी दूर हो गए। जो लोग साथ रहते थे, वे मिलने से घबराने लगे। उस समय महसूस हुआ कि इस संसार में कोई हमारा स्थायी नहीं है। अकेले आए हैं और अकेले ही जाएंगे। यही सोच मेरे वैराग्य का कारण बनी।” 

कोरोना काल ने दिखाई वैराग्य की राह

हर्षित ने बताया कि उनका चांदनी चौक में कपड़ों का बड़ा कारोबार था, जबकि बड़े भाई दिल्ली के मैक्स अस्पताल में डॉक्टर हैं। उनके पिता पहले बड़ौत में समर्सिबल पंप्स का व्यवसाय करते थे और अब दिल्ली में हैं। उन्होंने कहा, “मैंने देखा कि कोविड के दौरान परिवार के लोग भी एक-दूसरे के पास आने से डरते थे। दूर से थाली पकड़ाई जाती थी। यह दृश्य देखकर मन में गहरा परिवर्तन आया और दीक्षा का दृढ़ संकल्प हुआ।”

(रिपोर्ट- पारस जैन)

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