
इंजीनियर्स डे
Engineers Day 2025: तपती धूप, तेज गर्मी, उबड़ खाबड़ रास्ते और 92 साल की उम्र.. आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसी हालत में कोई किसी बड़े पुल प्रोजेक्ट के कार्यस्थल (Site) का मुआयना करने जा सकता है! लेकिन यही जज्बा था जिसने सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को एक महान इंजीनियर का बनाया। देश की प्रगति में उनका अमूल्य योगदान रहा है। उनके जन्मदिन 15 सितंबर को हर साल अभियंता दिवस यानी इंजीनियर्स डे के रूप में मनाया जाता है। तपती धूप और 92 साल की उम्र में साइट का निरीक्षण करना तो एक घटना मात्र है, एम विश्वेश्वरैया के जीवन से जुड़े ऐसे कई पहलू हैं जो उनकी जबरदस्त इच्छाशक्ति त्याग, मेहनत को उजागर करते हैं। उनका कहना था कि काम जो भी हो लेकिन उसे इस ढंग से किया जाना चाहिए कि वह दूसरों से श्रेष्ठ हो। 1955 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।
मोकामा में गंगा नदी पर बन रहे पुल का सर्वे
दरअसल, 1952 में पटना के पास मोकामा में गंगा नदी पर राजेंद्र सेतु पुल का निर्माण हो रहा था। इस प्रोजेक्ट के सर्वे के लिए एम विश्वेश्वरैया वहां गए थे। गर्मी बहुत ज्यादा थी। तपती धूप और उबड़ खाबड़ रास्तों पर गाड़ी नहीं जा सकती थी। उस समय एम विश्वेश्वरैया की उम्र भी 92 वर्ष हो चुकी थी। लेकिन विश्वेश्वरैया भी अपनी धुन के पक्के थे। उन्होंने पैदल ही साइट का सर्वे शुरू कर दिया। उस इलाके के लोग उस घटना का वर्णन करते हुए बताते हैं कि जब वे बहुत ज्यादा थक जाते थे तो उनके साथ के लोग उन्हें कंधे पर बिठाकर आगे की ओर ले जाते थे। इस तरह से एम विश्वेश्वरैया ने बतौर इंजीनियर उस पुल का सर्वे पूरा किया। इस पुल से न केवल उत्तर और दक्षिण बिहार को कनेक्टिविटी मिली बल्कि यह पुल बिहार के लोगों के लिए लाइफ लाइन भी साबित हुआ।
15 सितंबर 1860 को मैसूर में हुआ था जन्म
एम विश्वेश्वरैया का जन्म 15 सितंबर 1860 को मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काकबल्लापुर में हुआ था। उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई चिक्काबल्लापुर से ही की थी। बाद में वे बैंगलोर शिफ्ट हो गए। वहां से बीए की डिग्री ली और फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पुणे चले आए। पुणे के कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। उन्होंने पीडब्ल्यूडी और भारतीय सिंचाई आयोग में भी नौकरी की।
मैसूर को विकसित और समृद्धशाली बनाने में एम एम विश्वेश्वरैया की भूमिका अहम मानी जाती है। उन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहा जाता है। उन्होंने सिंधु नदी से सक्खर इलाके में पानी भेजने का बेहतरीन प्लान तैयार किया, जिसकी खूब तारीफ हुई। उन्होंने बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करने के लिए एक नए ब्लॉक सिस्टम के तहत स्टील के दरवाजे बनाए थे जिसकी अंग्रेजों ने भी खूब तारीफ की थी। उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर भी बनाया गया था। विश्वेश्वरैया ने सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नवीन तकनीकों का आविष्कार किया और बड़े पैमाने पर परियोजनाओं को डिजाइन किया। उनके योगदान ने भारत की बुनियादी ढांचा को मजबूत बनाया।
इंजीनियरिंग में प्रमुख योगदान
ब्लॉक सिंचाई प्रणाली (Block System of Irrigation)
1899 में डेक्कन नहरों में लागू किया। यह एक क्रांतिकारी विधि थी जो पानी के वितरण को व्यवस्थित करती थी। इससे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता बढ़ी और पानी की बर्बादी रुकी।
ऑटोमेटिक फ्लड गेट्स (Automatic Flood Gates)
1903 में पुणे के खडकवासला जलाशय में पहली बार स्थापित, जिन्हें उन्होंने पेटेंट कराया। बाढ़ के दौरान स्वचालित रूप से पानी को नियंत्रित करते थे, जिससे जलाशयों की सुरक्षा सुनिश्चित हुई। यह आज भी कई डैमों में उपयोग होता है।
पंजरा नदी पर पाइप साइफन
बॉम्बे PWD में पहला प्रमुख प्रोजेक्ट-नदी के एक चैनल पर पानी की आपूर्ति के लिए सुरंग जैसी संरचना बनाई, जो इंजीनियरिंग की उत्कृष्टता का उदाहरण बनी।
सक्कुर शहर में पानी की समस्या समाधान
सिंधु नदी के किनारे सक्कुर शहर में गंदे पानी की समस्या हल की। पानी को साफ करने की तकनीक विकसित की, जो शहरी जल आपूर्ति के लिए मॉडल बनी।
विशाखापत्तनम पोर्ट का तटीय कटाव संरक्षण
तटीय कटाव से पोर्ट की रक्षा के लिए इंजीनियरिंग समाधान डिजाइन किया। भारत के प्रमुख बंदरगाहों की स्थिरता सुनिश्चित की।
कृष्णा राजा सागर (KRS) डैम
मैसूर में कावेरी नदी पर 1911-1932 के बीच निर्माण कराया। यहां वे चीफ इंजीनियर थे। यह दक्षिण भारत का सबसे बड़ा डैम है जिससे सिंचाई, पेयजल और जलविद्युत उत्पादन होता है। इससे लाखों एकड़ भूमि उपजाऊ बनी।
हैदराबाद बाढ़ नियंत्रण योजना
हैदराबाद शहर को बाढ़ से बचाने के लिए विशेष कंसल्टेंट इंजीनियर के रूप में कार्य किया। शहर को विनाश से बचाया और बाढ़ प्रबंधन की नई विधियां विकसित कीं।
तुंगभद्रा डैम, मैसूर आयरन एंड स्टील वर्क्स (भद्रावती) के अलावा भारत के औद्योगीकरण को बढ़ावा, स्टील उत्पादन में आत्मनिर्भरता कायम करने में उनका अहम योगदान रहा। 14 अप्रैल 1962 को 101 साल की उम्र में उनका निधन हुआ।